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धरती का जाया ओ

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श्री बालकवि बैरागी के मालवी श्रम-गीत संग्रह
‘अई जावो मैदान में’ की बारहवीं कविता


यह संग्रह डॉ. श्री चिन्तामणिजी उपाध्याय को समर्पित किया गया है।



धरती का जाया ओ

धरती का जाया ओ
धरती का धाया ओ
धीरप ती धीराँ धोर्याँ ने धर में धरजो रे
इन्दर तो गरजीग्यो मरदाँ थी भी गरजो रे
धरती का जाया ओ

सूरज की किरणाँ का चूल्हा धक-धक करता ही रेईग्या
रुई सरीखा धोरा बादल कारा घुँघरारा वेईग्या
इन्दरगढ़ का पणघट पर राजा इन्दर को मन बोरईग्यो
रूपा वरणी बादरी में अमल कसूम्बो घोरईग्यो
प्याला दे वीजू राणी
इन्दर ने मूछाँ ताणी
हाथ हथेर्याँ छक छाला का प्याला भरजो रे
इन्दर तो गरजी ग्यो मरदाँ थी भी गरजो रे
धरती का जाया ओ

मीठी नद्याँ मीठी नार्याँ मीठो निरधन नारो ओ
(पण) सौ गोर्याँ को सायब समदर मन को कतरो खारो ओ
दो टपका भी मीठो पाणी समदर थाने न्ही देवे
(पण) सूरज लूटे भरी दुपेराँ तो भी यो कई न्ही केवे
समदर ने यूँ ही रोवा दो
सूरज ने सत खोवा दो
थी तो बस दो भाटा लेईने
खारी वेवा जाती नद्याँ के आड़ा फरजो रे
इन्दर तो गरजी ग्यो मरदाँ थी भी गरजो रे
धरती का जाया ओ

गगन गोखड़े बेठो ब्रम्हा देखो कतरो पोमावे
अण बूढ़ा-ठाड़ा हाथाँ पाँ ती काँ तू किस्मत लिक्खावे
वाँकी-चूँकी रेख अपणी खेंची आज बतई दो रे
अणा आकासा की अट्टार्याँ की ईंटाँ परी डगई दो रे
टॉंक पकड़ लो ब्रम्हा की 
आदत छोड़ो खम्मा की
ब्रम्हा को सिंघासण कोसो
जदी पुरेगा आज तलक को अपणो हरजो रे
इन्दर तो गरजी ग्यो मरदाँ थी भी गरजो रे
धरती का जाया ओ

बाँध गाँठड़ी गज मोत्याँ की गगन जातरी निकरी ग्या
(तो) मेघराज की मारा में ती मँहगा मोती वखरीग्या
ओ धरती की राजल बेटी हुण ले झूँपड़ी की राणी
थारे छत्ताई इतरई है मेघराज की पटराणी
थारा नाथ ने हमझई दे
थारी आँत ने यूँ केई दे
दो-दो पीढ़ी जीवे फेर भी
जामण का जंगी जाया पर काँ यो करजो रे
इन्दर तो गरजी ग्यो मरदाँ थी भी गरजो रे
धरती का जाया ओ

चालो थाने हेला पाड़े खेताँ को चिकणो गारो
चालो थाने याद करी र्यो तरे-तरे को बिजवारो 
वावो, करपो, नींदो, काटो और खरा में लावो रे
नवी कलम का गीत नवादा नवा सुराँ में गावो रे 
बजे ख़रा में इकतारो 
लगे रसीलो रणकारो 
अणी मौज पर देव बरेगा
अणा अभागा ने बरवा दो कोई मत बरजो रे
इन्दर तो गरजीग्यो मरदाँ थी भी गरजो रे
धरती का जाया ओ

बारा क्रोड़ पचोर पूत की जामण का जाया जागो
धरती का मालक के खाते इन्दर को नामो लागो
थाँ के वेताँ थाँ की माँ को मालक दूजो केवावे
अब करनो के मरनो रे मरदाँ लोही उकरनो ही चावे
चालो पसीनो देवाओ
हाँचा बेटा केवावो
जरण मरण की अणी आण पर
ओ धरती का पूत हपूताँ जूझी मरजो रे
इन्दर तो गरजी ग्यो मरदाँ थी भी गरजो रे
धरती का जाया ओ
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‘अई जावो मैदान में’ की तेरहवीं कविता ‘पसीनो ललाट को’ यहाँ पढ़िए।


संग्रह के ब्यौरे
अई जावो मैदान में (मालवी कविता संग्रह) 
कवि - बालकवि बेरागी
प्रकाशक - कालिदास निगम, कालिदास प्रकाशन, 
निगम-निकुंज, 38/1, यन्त्र महल मार्ग, उज्जन (म. प्र.) 45600
प्रथम संस्करण - पूर्णिमा, 986
मूल्य रू 15/- ( पन्द्रह रुपया)
आवरण - डॉ. विष्णु भटनागर
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मुद्रक - राजेश प्रिन्टर्स, 4, हाउसिंग शॉप, शास्त्री नगर, उज्जैन




यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। ‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।












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